नई दिल्ली, 30 नवंबर 2024: भारत के सर्वोच्च न्यायालय, सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय सुनाया है, जिसमें उसने यह स्पष्ट किया कि यदि किसी प्रेमी और प्रेमिका के बीच ब्रेकअप हो जाता है और इस वजह से कोई व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है, तो इसे आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला नहीं माना जाएगा। इसके अलावा, कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि कोई लड़का अपनी प्रेमिका से शादी का वादा करता है और फिर उस वादे को तोड़ता है, तो उसके खिलाफ किसी तरह का आपराधिक मामला दर्ज नहीं किया जा सकता है।
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट ने एक 8 साल पुराने मामले की सुनवाई करते हुए दिया। इस मामले में एक युवक के खिलाफ एक लड़की से शादी के वादे को तोड़ने और बाद में लड़की द्वारा आत्महत्या करने के कारण केस दर्ज किया गया था। युवक पर आरोप था कि उसने शादी का वादा तोड़ा और इसके बाद लड़की ने मानसिक दबाव के चलते आत्महत्या कर ली।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि “लड़का-लड़की के बीच व्यक्तिगत रिश्तों का विवाद और ब्रेकअप को आत्महत्या के लिए उकसाने के रूप में नहीं देखा जा सकता।” कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रेम संबंधों में उतार-चढ़ाव होना स्वाभाविक है और ऐसी परिस्थितियों में आत्महत्या को लेकर किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय एक स्पष्ट संदेश दिया कि व्यक्तिगत संबंधों में मनमुटाव और वादों का टूटना अपराध नहीं है, और इसे आपराधिक मामला बनाने के लिए मानसिक उत्पीड़न का पर्याप्त प्रमाण होना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उसने प्रेमी या प्रेमिका से शादी का वादा किया था और बाद में उसे तोड़ दिया।
यह फैसला विशेष रूप से समाज में प्रेम संबंधों के संदर्भ में कानूनी दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है, जहां कोर्ट ने निजी और भावनात्मक विवादों को अपराध से अलग कर दिया। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भविष्य में इस तरह के मामलों में न्यायिक विचार को प्रभावित कर सकता है और संबंधित विवादों में न्याय व्यवस्था के साथ-साथ समाज के दृष्टिकोण में भी बदलाव ला सकता है।
यह फैसला उन मामलों में भी मार्गदर्शन प्रदान करेगा जहां व्यक्तिगत संबंधों के कारण आत्महत्या या मानसिक उत्पीड़न का आरोप लगता है। इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी बताया कि किसी व्यक्ति को भावनात्मक परेशानी से उबरने के लिए उचित काउंसलिंग और मानसिक समर्थन की जरूरत है, न कि उसे कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़े।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को कानूनी और सामाजिक दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है, जो भारतीय न्याय व्यवस्था में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संबंधों के प्रति समझ और संवेदनशीलता को बढ़ावा देता है।